Wednesday, March 2, 2016

Right Decisions in Dilemma (धर्मसंकट)

धर्म संकट में कार्यकुशलता



जब हम कोई कार्य निःस्वार्थ भाव से करते है जिसमे समाज का कल्याण होता है तो हमें  बहुत से कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है।  कभी कभी  तो  हमें अपने सम्बन्धी , मित्र  आदि लोग ही धर्मसंकट में डाल देते हैं। अधिकांशतः हमें  ऐसे त्वरित निर्णय लेना पड़ता है कि हम समस्त मानस के हित अनहित के बारे में विचार ही नहीं कर पाते हैं।  इसका मतलब यह नहीं होता है कि हम गलत निर्णय ले रहे है, हो सकता है कि किसी अनहोनी, उपद्रव या अवांछनीय कार्य अथवा तत्वों को रोकने के लिए त्वरित ऐसा करना पड़ रहा हो। परन्तु उस निर्णय में समाहित हित अथवा अनहित को भांप लेना भी अपने आप में एक कार्यकुशलता है।  कभी कभी हमसे यह भी नहीं हो पाता है, परन्तु जब कोई अपना व्यक्ति या हम स्वयं कही किसी ऐसी असुविधा का शिकार होते  हैं  जो कि  किसी निर्णय द्वारा उत्तपन्न हुआ हो तब हमें यह ज्ञात होता है की इस फैसले में कुछ खामियां हैं जिससे कुछ लोगो को असुविधा हो रही है या हो सकती है।  परन्तु हम कभी कभी अपने सिद्धांतो में फंस जाते है, जो सिद्धान्ते हमारी उस कदाचित अनुचित फैसलों से सृजित हुई  होती है। फिर हम स्वयं को सिद्धांतवादी मानते हुए उस निर्णय को बदलने में हिचकिचाते हैं। हम फिर यह सोचने लगते हैं कि अब यदि मैं इसे बदलता हूँ तो समाज हमें छद्म सिद्धांतवादी कहेगा, या फिर स्वार्थी कहेगा आदि।  और इस तरह एक गलत निर्णय आगे बढ़ता रहता है।  परन्तु हमारे विचार से ऐसा कुछ भी अनुभव नहीं करना चाहिए और अपने इस अनुपयुक्त सिद्धांत को बदलना भी चाहिए। अपने उस फैसले को भी बदलना चाहिए जिससे लोगो को भविष्य में और असुविधा न हो।  इस संसार में कुछ भी अटल नहीं है।  प्रकृति भी बदलती है , ग्रह  नक्षत्र तारे सूर्य सभी अपना व्यवहार बदलते है तो भला हम इस संसार में कैसे नहीं बदल सकते हैं। नदियाँ अपना बहाव क्षेत्र बदलती हैं , यहाँ तक कि हमारी भूमि भी गतिमान है।  जहाँ आज हिमालय है वहां कभी समुद्र हुआ करता था और आखिर यही तो संसार का नियम है जिसे हम परिवर्तन कहते हैं।
जब भी कभी परिवर्तन होता है तो समाज उसका विरोध करता है चाहे परिवर्तन सही ही क्यों न हो और यह भी जगत की प्रकृति है। यहाँ पर महात्मा गांधी के  एक वक्तव्य का उल्लेख करना चाहूंगा कि जब भी आप कुछ अच्छा या समाज के हित में परिवर्तन या कार्य  करना चाहेंगे तो आपका विरोध होगा, आपको गाली दिया जायेगा, हो सकता है आपको दंड भी मिले परन्तु यदि आप अपने मार्ग से विचलित नहीं हुए तो अंत में जीत आपकी होगी और फिर समाज आपका जय जयकार करेगी। अतः हमें गलत निर्णय को त्वरित बदलना चाहिए, चाहे वह निर्णय किसी ने भी लिया हो, इसमें कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए।  यह हमारा समाज के प्रति दायित्व भी है।  
यदि बात प्रशासन की हो तो कभी कभी एक संकट यह भी आती है कि  सामान्यतः न्याय और दया भिन्न प्रतीत होते हैं।  परन्तु न्याय और दया में अंतर नहीं है क्यों कि, दंड देने का प्रयोजन है कि मनुष्य अपराध करने से दुखों को प्राप्त न हो।  और यही दया भी है।  जिसने जितना अपराध  किया हो तो उसे उतना ही दंड मिलना चाहिए। यही न्याय है।  उदाहरणतः अपराधी को कारागार में रख कर पाप करने से बचाना भी दया है।  परन्तु निरंतर जघन्य अपराध करने पर मृत्यु दंड देना भी अन्य मनुष्यों पर दया है, जिसे उस व्यक्ति की प्रताड़ना सहनी पड़ सकती थी। बुरे कर्मों (पापों )को तो ईश्वर भी क्षमा नहीं करते,  क्योकि ऐसा करने से न्याय नष्ट हो जाता है। अतः ईश्वर प्रत्येक प्रणियों को उसके कर्मो के अनुसार फल जरूर देता है।  यही तो न्याय है। ईश्वर की इससे बड़ी दया क्या होगी कि उसने जीवों के प्रयोजन सिद्ध होने के लिए आवश्यक सभी पदार्थ दान में दे रखे हैं।  

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